शनिवार, नवंबर 11, 2017

एक धुँध से आना है…एक धुँध में जाना है

उद्गम स्थल की अपनी बड़ी महत्ता होती है, जैसे कुछ परिवारो में जन्म लेने की होती है. दिल्ली वाले गाँधी परिवार या लखनऊ-पटना वाले यादवों के यहाँ पैदाभर हो जाओ तो राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना और बड़े नेता बनना तय हो जाता है, फिर भले ही आप १२ वीं फेल हों या आपका आई.क्यू. लेवल नोटबंदी के दौरान पकड़े ग काले धन के प्रतिशत (शून्य) से भी नीचे हो. अरबपति खानदनों में पैदाश ही काफ़ी है। तब हर तबके पर भारी देश के नेता आपके आगे साष्‍टांग करते नजर आएंगे. हालांकि, बड़े नेताओं के घर पैदा होकर नेता कहलाना या अरबपति व्‍यापारिक घरानों में पैदा होकर सफल व्यापारी कहलाना, किसी भी तरह से इस बात की गारंटी नहीं है कि बंदे में वैसी काबिलियत भी है. बहरहाल, अपवाद तो हर जगह होते ही हैं.

ज़ारों मीटर की ऊँचाई पर उड़ रहे हवाई जहाज में पायलट की सीट पर बैठकर आप एक सफल पायलट दिख सकते हैं, यूँ ही बैठे-बैठे कई मीलों तक हवाई जहाज उड़ा भी सकते हैं मगर आपकी काबिलियत तब आंकी जाती है जब हवाई जहाज उड़ान भरता-उतरता है, या फिर जब वह किसी तूफान का सामना करता है जिसे टर्बूलेन्स कहते हैं. जी हाँ, ये टर्बूलेन्स ही पकी काबिलियत का वास्‍तविक पैमाना है.

बड़े नेता और अरबपति व्यापारी पुत्र भी अक्सर राजनीति और व्यापार में आ टर्बूलेन्स को झेलने में अक्षम पा जाते हैं. बाप के प्रभाव में उपमुख्यमंत्री बना कर बैठा दो तो भी हल्की-फुल्की राजनीतिक आँधी आई नहीं कि खुद ही कुछ ऐसी हरकत कर बैठते हैं कि धड़ाम से कुर्सी से नीचे आ गिरते है. वहीं ज़मीन से उठा कोई नेता या व्यापारी, जिसने सारे उतार-चढ़ाव पार करते हुए नेतागीरी या व्यापार में कोई मुकाम हासिल किया है, उसकी काबिलियत ही उसकी सफलता की वजह बनती है. उसकी मेहनत, लगन और निष्ठा उसे शिखर पर ले जाते हैं. वह ज्यादा वजनदार साबित होता है क्‍योंकि उसमें आँधियों से लड़ते हुए डटे रहने की शक्ति और सूझ होती है.

द्गम की तरह ही मुकाम की भी अपनी महत्ता होती है। विडंबना यह है कि मुकाम भी अपने साथ मुकाम पर बने रहने की मजबूरियाँ लाता है. नेता चाहे खानदानी हो या ज़मीनीचाय बेचकर एक खास मुकाम तक पहुँचा हो या किसी कुटुम्‍ब विशेष में जन्‍म लेकर...मुकाम पर पहुँचते ही वो इन लक्ष्मीपुत्रों की सेवा में लग जाता है. उसे मुकाम पर पहुँचते ही मुकाम पर बने रहने की चिन्ता सताने लगती है ऐसे में भिन्‍न-भिन्‍न पृष्‍ठभूमियों, अलग-अलग इरादों से राजनीति में आए नेता खुद-ब-खुद एक से हो जाते हैं. दोनों को ही सफल होने और सफल बने रहने के लिए लक्ष्मीपुत्रों की ज़रत होती है और लक्ष्मीपुत्रों को लक्ष्मीपुत्र बने रहने के लिए इनकीयूँ तो दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं पर चूँकि लक्ष्मी जी का दर्जा भगवान का है और चाणक्य का इंसान काइसलिए अंतत: पूजन लक्ष्‍मी का ही होता है

न जाने क्यूँयह सब याद करते-करते एकाएक कश्मीर की वादियों में पैदा होने वाली धुँध याद आने लगी..कितनी सुहानी..कितनी रोमांटिक. फिल्मों में उसे देखते ही मन मचलने लगता था कि काश!! हम भी पहाड़ों में अपनी माशूका के साथ जाएं और उस धुँध में नाचेंगाएं...धुँध के ही आगोश में खो जाएं. हाथ को हाथ दिखाई न दे...बस हसास सहारा बने और हम मदहोश हो जाएं.

इसके इतर एक वो धुँध होती है जो विचारों में जन्मती है, जिसके पार किसी को कुछ दिखता ही नहीं. बस एक हमारी सोच ही है जो जा पाती है उस पार...उस अनजानी-अनसुनी सी जगह. सब यही सोचते रहते हैं कि धुँध के उस पार न जाने क्या होगा. महेन्द्र कपूर गाते हैं:
संसार की हर शै का इतना ही फ़साना है, एक धुध से आना है एक धुध में जाना है  

और बस यह याद करते-करते एकाएक आँखों में जलन का हसास होता हैएक खांसीजो ले जाती है गैस चैम्बर दिल्ली की उस धुँध में जिससे आज दिल्ली का हर शख्स परेशान हैहवाई उड़ानें बाधित हैं... बच्‍चे-बूढ़े सब परेशान हैं. कभी मुख्यमंत्री अकेले खांसा करते थे, आज इस धुँध ने पूरी दिल्ली को उनके रंग में रंग दिया है. सब खाँस रहे हैं और वो सीना तान ५६ इंची छाती वाले के सामने दावा कर रहे हैं कि देखो, पूरी दिल्ली मेरे साथ है. उद्गम तक तय नहीं हो पा रहा है कि आखिर यह धुँध जन्म कहाँ से ले रही है? कभी टाखों का धुआं, कभी गाड़ियों का धुआं, कभी हरियाणा-पंजाब के खेतों से उठता धुआं, कभी दिल्ली के बाहर कचरा जलाए जाने से होने वाला धुआं तो कभी पार्टी की अंदरनी कलह की वजह से तो कभी गुजरात चुनाव के मद्देनजर पार्टी नेताओं के कान से उठता धुआं, कभी नोटबंदी और जीएसटी की नाकामी पर जबाब न दे पाने के कारण तलुओं से उठता धुआंजिसकी जिस पर मर्जी हो रही है, वो उसी पर इसका ठीकरा फोड़ते हुए कह रहा है कि फलां-फलां वजह से प्रदषण के ऐसे हालात बन गए हैं. ऑड-ईवन लगा दो, पेड़ धुलवा दो, पानी के फव्वारे चलवा दोजितने मुँह उतनी सलाह. जगह-जगह प्रदषण मीटर लगा दिए गए हैं और पान के ठेलों पर बैठकर ज्ञान की जुगाली करते तथाकथित विद्वान् इन आंकड़ों को समझकर इन पर अपने विचार रख रहे हैं। बता रहे हैं कि कैसे इस समस्‍या से निपटा जा सकता है, वो भी मिनटों मेंमगर इनसे को पूछे तब न!! इनकी माने तो इनक फेसबुक अपडेट पढ़कर ही चीन ने इस समस्या से निजात पाई थी.

ऐसे विषम वक्त में भी कोई इस बात से गौरवान्वित हो रहा है कि चलो, प्रदषण के मामले में तो हमने चीन को हरा दिया..हमारी दिल्ली का प्रदषण इंडेक्स बजिंग के प्रदषण इंडेक्स से ज्यादा है. ले लिया बदला...चटा दी धूल  डोकलाम की...ये है ५६ इंची!!

कश्मीर और विचारों की धुँध तो मौसम और माहौल के हिसाब से आती-जाती रहेगी अब न चेते तो दिल्ली की धुँध ज़रूर नासूर बन जायेगी.

तो आपने देखा न उदगम का माहात्‍म्‍य...इन सब धुँधों के अलग-अलग उदगम हैं और फिर आप तो समझदार हैं हीं। आई.क्यू. लेवल मोर देन काला धन रिकवरीयाने ज़ीरो से ज्यादातो जान ही लेंगे इनको कैसे कनेक्‍ट किया जाए नेता, अरबपति और बाकी बचे आमजन के साथ...हालांकि आमजन वो हैं जिका ज़ि‍क्र तक नहीं आया है इस पूरे चिन्तन में.

आमजन का हाल तो यूँ भी यही है, है न?

-समीर लाल समीर’  

दैनिक सुबह सवेरे, भोपाल के रविवार १२ नवम्बर, २०१७ में प्रकाशित:   
http://epaper.subahsavere.news/c/23636219   


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2 टिप्‍पणियां:

Arshia ने कहा…

सोचने को विवश कर दिया आपने। आभार।

कविता रावत ने कहा…

धुँध का भी अपना एक अलग ही अनुभव है, मजा है
बहुत खूब!